कुल्हड़ की चाय

कुल्हड़ की चाय

वो कुल्हड़ की चाय, वो जुबान का जलना...
वो तपते की आग में आलुवों का गलना
वो ठंडी फर्श पर उचकते हुए चलना 
वो मम्मी का मेरे हाथों को फूंको में मलना...
वो मटर छीलते हुए चालबाजी करना 
वो मूंगफली के छिलके बहन के सर में भरना...
वो आलू के पराठे, वो लहसुन की चटनी 
वो मोहल्ले का खेल, वो पैरों में फटनी...
वो किटकिटाते हुए मुंह से भापें उड़ाना
वो गोल्डस्टार के जूतों में दौडें लगाना...
वो ऊनी दस्तानों में मोंगिया बन जाना 
वो मफलर घुमाकर टोपियाँ बन जाना...
वो सूरज का शामों में जल्दी सो जाना 
कभी कैसेट के गानों में चुपचाप रो जाना...
वो हाथो पर टीचर के डस्टर की चोटें 
वो दिखावट के सिक्के, वो छुपाई हुई नोटें...
“अब कैलेंडर है ठिठुरे, अब घड़ियाँ में सन्नाटे 
ठंडी थोड़ी कम लगती, दोस्त यार जो होते...
वो सर्दी की शामें, वो लड़कपन की बातें 
अब अलसाती है सुबह, अब सोती कहाँ है रातें...

शायरी कुल्हड़ की चाय kulhar-ki-tea

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